आपातकाल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस)

भारत के राजनीतिक इतिहास में 1975-1977 के बीच की अवधि एक अंधकारमय दौर के रूप में दर्ज है, जिसे आपातकाल के नाम से जाना जाता है।  वह दौर था अधिनायकवाद का, तानाशाही का दौर था, लोकतंत्र की हत्या का दौर था, संविधान को खतरे का दौर था, संविधान बदलने का दौर था, नागरिक मूल अधिकारों के हनन का दौर था, यही नही वह दौर प्रेस और मीडिया सहित सभी विरोधी आवाजो के गला घोंटने के दौर के रूप में जाना जाता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा की, जिससे नागरिक स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों का हनन हुआ।   इस अवधि में भारतीय लोकतंत्र को एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा था।  इस संकटपूर्ण समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के स्वयंसेवकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अपने साहस, धैर्य और देशभक्ति का परिचय दिया।

आपातकाल की पृष्ठभूमि

कांग्रेस की विशाल रैली (20 जून, 1975): इस रैली में देवकांत बरुआ ने इंदिरा गांधी की प्रशंसा में कहा था, “इंदिरा तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय, तेरे काम की जय, तेरे नाम की जय।” इसी रैली में इंदिरा गांधी ने घोषणा की कि वे प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र नहीं देंगी।


उधर 25 जून, 1975 को रामलीला मैदान पर विशाल जनसमूह के सम्मुख जयप्रकाश नारायण ने कहा, “सब विरोधी पक्षों को देश के हित के लिए एकजुट हो जाना चाहिए अन्यथा यहाँ तानाशाही स्थापित होगी और जनता दुखी हो जायेगी।” इसी दिन आपातकाल की घोषणा की गई।

1971 के आम चुनावों में भारी बहुमत से जीतने के बाद एक तरफ इंदिरा गांधी की लोकप्रियता चरम पर थी। लेकिन दूसरी तरफ 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनके चुनाव को अवैध घोषित कर दिया और उन्हें पद से हटने का आदेश दिया। इंदिरा गांधी की सत्ता की भूख ने लोकतंत्र को कुचलने वाले निर्णय करवाये। न्यायालय के निर्णय के विरोध में इंदिरा गांधी ने 25 जून अर्धरात्रि को तत्कालीन राष्ट्रपति के माध्यम से आपातकाल घोषित कर दिया, जिसमें प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया गया, विपक्ष के नेताओं को अर्धरात्रि को ही गिरफ्तार किया गया और नागरिक अधिकारों का खुले आम दमन किया गया।

आरएसएस की भूमिका

जैसा कि हम सब जानते है आरएसएस एक सांस्कृतिक संगठन है जिसका उद्देश्य भारत की सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रभक्ति को बढ़ावा देना है। आपातकाल के दौरान आरएसएस ने भारतीय लोकतंत्र और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए संघर्ष किया। इस संकट के समय में, जब कई राजनेता हताशा और निराशा के गर्त में थे, आरएसएस के स्वयंसेवकों ने जेलों में भी अदम्य उत्साह और साहस का परिचय दिया।


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध (4 जुलाई, 1975): संघ के एक लाख से भी ज्यादा स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया और कारावास झेला।

जेलों में आरएसएस का संघर्ष

आरएसएस के कई प्रमुख नेताओं और स्वयंसेवकों को गिरफ्तार कर जेलों में डाला गया। लेकिन इन कठिन परिस्थितियों में भी स्वंयसेवक हताश नहीं हुए। जेलों में आरएसएस के स्वयंसेवक देशभक्ति के गीत गाकर, सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित कर और देश की स्वतंत्रता की महत्ता को समझाते हुए अपने साथी कैदियों का मनोबल बढ़ाते रहे। स्वयंसेवकों का उद्देश्य स्पष्ट था – ‘किसी भी कीमत पर देश की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की रक्षा करना।”


ध्यान देने वाली बात है कि कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई ने आपातकाल को एक अवसर के रूप में देखा और इसका समर्थन किया।

देशभक्ति के गीत और सांस्कृतिक कार्यक्रम

जेलों में बंद आरएसएस के स्वयंसेवक नियमित रूप से देशभक्ति के गीत गाते थे। इन गीतों का उद्देश्य न केवल स्वयं का उत्साह बनाए रखना था, बल्कि अन्य कैदियों में भी देशभक्ति की भावना जागृत करना था। इन गीतों में ‘वन्दे मातरम्’, ‘जन गण मन’, और अन्य प्रेरणादायक गीत शामिल थे। इसके अलावा, वे सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करते थे, जिनमें देश की स्वतंत्रता संग्राम की कहानियों का मंचन होता था। जैल की सूखी रोटी और पतली दाल खाने को मिलती तो जहां अन्य कैदी रोने लगते वहीं स्वंयसेवक उसे पकवान मानकर भोजन मंत्र के साथ प्रसाद पाकर खुश रहते।

नेताओं का हौसला बढ़ाना

आरएसएस के स्वयंसेवकों ने न केवल स्वयं के उत्साह को बनाए रखा, बल्कि जेलों में बंद अन्य नेताओं और कैदियों का भी हौसला बढ़ाया।  उनका यह रवैया अन्य कैदियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना और उन्होंने भी संघर्ष करने का संकल्प लिया। उन्होंने अपने धैर्य और साहस से यह संदेश दिया कि किसी भी परिस्थिति में हार नहीं माननी चाहिए।

आपातकाल के खिलाफ आंदोलन

आरएसएस ने आपातकाल के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन चलाया।  इस आंदोलन में आरएसएस के स्वयंसेवकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अनेक बार पुलिस की बर्बरता का सामना किया। गुप्त बैठकों, पर्चे बांटने और विरोध प्रदर्शन के माध्यम से उन्होंने जनता को आपातकाल के दुष्प्रभावों से अवगत कराया। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और लोकतंत्र की बहाली के लिए लगातार संघर्ष करते रहे। लगभग 1 लाख स्वंयसेवक इस आंदोलन से जुड़े।

आपातकाल के अंत और आरएसएस का योगदान

जनवरी 1977 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल समाप्त करने की घोषणा की और मार्च 1977 में आम चुनाव कराए गए। इन चुनावों में इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी की करारी हार हुई और जनता पार्टी की अल्पकालिक सरकार बनी। आपातकाल के दौरान आरएसएस के संघर्ष और उनके स्वयंसेवकों के साहसपूर्ण कार्यों ने इस जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

जानिए क्या था मीसा कानून :- आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (मीसा) 1971 में भारतीय संसद द्वारा पारित एक विवादास्पद कानून था, जिसने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रशासन और भारतीय कानून प्रवर्तन एजेंसियों को बहुत व्यापक शक्तियां प्रदान कीं - व्यक्तियों की अनिश्चितकालीन निवारक नजरबंदी, बिना किसी पूर्व अनुमति के संपत्ति की तलाशी और जब्ती।

आपातकाल के दौरान आरएसएस के स्वयंसेवकों का साहस, धैर्य और देशभक्ति का प्रदर्शन भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। जब अधिकांश राजनेता हताश और निराश थे, तब आरएसएस के स्वयंसेवकों ने जेलों में भी उत्साह और ऊर्जा का संचार किया। उनकी इस भूमिका ने भारतीय लोकतंत्र की रक्षा में महत्वपूर्ण योगदान दिया और यह साबित किया कि कठिन से कठिन परिस्थिति में भी यदि मनोबल और साहस बना रहे, तो किसी भी चुनौती का सामना किया जा सकता है।

manumaharaj द्धारा

Writer, Speaker,

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